बाद्शा के हुक्म की
तामील लगता है
नदी सूखी
पुल बहुत अश्लील लगता है।
रेत में खंभा, अचंभा
और अचरज-सा
बोलता है मिल्कियत के
लौह कागज-सा
आ रहा
हर एक लमहा चील लगता है।
लहर कोई भी नहीं
पाताल तक बाकी
जाम उल्टे, मुँह चुराता
घूमता साकी
हर नया दिन
आदिवासी भील लगता है।
घाट पर बस तख्त हैं
कुछ सीढ़ियाँ भी हैं
छटपटाती प्यास वाली
पीढ़ियाँ भी हैं
सुख सिनेमा की
घिसी-सी रील लगता है।